कहानी हमारे अपने गाँव की है। कहानी नहीं, जीवंत कथा कहिए……… क्योंकि यह सत्य घटना है! हमारे गाँव के पितरों (पूर्वजों) की सत्य घटना !! इसमें कल्पनाशीलता का और भावनात्मकता का पुट अधिक मिलेगा। होगा ही …….. ! हम तो उस समय जन्में नहीं थे। किंतु इतना अवश्य है कि घटना सत्य है। सो ….. सुनी-सुनाई पर लिख रहे हैं। लगभग साढ़े पाँच वर्ष पूर्व की बात है। हमारे कुटुंब की सबसे बड़ी बुआ ‘गिरिजा बुआ जी’ माँ-पिताजी के घर अर्थात् हमारे मातृगृह (मायके) में आईं हुईं थीं। वहीं उनसे भेंट का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। बातों-बातों में वे हमारी माँ से पूछने लगीं कि उन्होंने सती मइया को ‘पूजा’ चढ़ाई कि नहीं! भोजपुरी में पूछा, “अहो! ए दुलहिन! तू लइका के बियहवा कइलू हा, त सती मइया के पुजवा चढ़वलु हा कि नाहिं ? साड़ी-लूगा ?” माँ ने बता दिया कि सभी नौकरी-चाकरी वाले हैं। छुट्टियाँ सीमित थीं। अतः वे हमारी सबसे बड़ी माँ को सारा सामान व रुपए सौंप कर चलीं आईं। सुनकर बुआ जी प्रसन्न हुईं थीं।
हमें सती चौरा की हल्की-सी ; धुँधली-सी झलक याद है। गाँव के मकान से ज़रा चार कदम आगे चलते ही बड़का बाबूजी (बड़े पिताजी) की चाय की दुकान और सती चौरा साथ-साथ पड़ते हैं। एक सपाट समतल-सा सफेद पक्का स्थल, जिसमें दो, कुछ उठे हुए, वेदी जैसे चबूतरे; एक बड़ा और चौड़ा; एक बहुत छोटा। उस स्थान को ही ‘सती चौरा’ कहा जाता है। उसके थोड़ा आगे जाते ही हमारे लहलहाते खेत और ‘बाबा तर’। ‘बाबा तर’ की चर्चा फिर कभी! आज केवल सती मइया की कथा।
हमारी बड़ी इच्छा हुई कि इस प्रसंग (सती मइया की पूजा) के विषय में जानें। तब हमने बुआ जी से पूछा, “ए फूआ ! इ सती मइया के रहली हा, अ उनके पूजा काहें चढ़ावल जाला ?” ( ए बुआ ! ये सती मइया कौन थीं और उनको पूजा क्यों चढ़ाई जाती है ?) तब बुआ जी ने कथा सुनानी शुरु की। माँ को संबोधित करते हुए बोलीं, “तहरा गाँवे एक्के जनी रहली। उनके छूँछे पूजा चढ़ावल जाला। हमरा किहाँ दूगो जनी रहली सन। दयादिन रहली हा सन। हमरा किहाँ त पूरी-छनौरी छनाला।” (तुम्हारे गाँव में एक ही स्त्री थी। उनको सूखी पूजा चढ़ाई जाती है। हमारे गाँव में दो स्त्रियाँ थीं। देवरानी-जेठानी थीं। हमारे यहाँ तो पूड़ी और पकवान बनाए जाते हैं।) कहानी सुनाते-सुनाते विधिवत् कहानी सुनाने से पूर्व बोलीं, “केतना बरिस से त उ जगहिया असहिं पड़ल रहे। ओकरा पर कुकुर हगत रहला ह सन ! ए पारि के असोक गाँवे गइला हन, त कहे लगलन, जे — जेकरा के हमनिका एतना बरिस से पूजतनि जा, ओकरे एतनी बेकदरी ! तब उ ओ सती चौरा के चारु ओरिया घेरा बनवा देलन, अ, एक गो गेट लगवा देलन।” (कितने वर्षों से वह स्थान यों ही पड़ा था। उस पर कुत्ते मल त्यागते थे। इस बार अशोक (हमारे चाचा) गाँव गए, तो कहने लगे, कि — जिसको इतने वर्षों से हम सब पूज रहे हैं, उसी की इतनी बेकदरी! तब उन्होंने उस सती चौरा के चारों ओर एक घेरा बनवा दिया और एक गेट लगवा दिया।) इसके बाद आरंभ की, उन्होंने असल कथा — (बुआ जी ने कथा भोजपुरी में सुनाई, जिसे हम हिंदी में अनूदित कर रहे हैं।) —-
हमारे पूर्वज बाबा जनों में एक बाबा ऐसे हुए, जो अंग्रेज़ों की फ़ौज में भर्ती हुए। तब देश पराधीन था। 1829 में ‘शारदा एक्ट’ पास हो चुका था ; जिससे बाल-विवाह पर वैधानिक रोक लग गई थी। ‘सती विनियमन अधिनियम (17) भी पास हो चुका था ; इससे स्त्री की इच्छा के विरुद्ध बलात् सती प्रथा पर प्रतिबंध लग गया था। अतः हिंदू भारतीय परिवारों में, सद्य: वैधव्या (विधवा) स्त्रियों से ‘सती’ होने के लिए उनकी इच्छा पूछी जाने लगी। कारण — कि कहीं परिवार जनों पर अबला स्त्री को बलपूर्वक जलाकर मारने का आरोप न लगे। यह भी सत्य था कि, पति की मृत्यु के पश्चात् उसकी मृत्त देह के साथ जीवित आत्मदाह कर लेने के लिए उसकी विवाहिता का मस्तिष्क शोधन किया जाता था। उसे भविष्य की सारी दुर्दशाएँ साक्षात् दिखा दी जातीं थीं। उसके बाद वह स्त्री चाह कर भी जीवित नहीं रह पाती थी; कल्पना भी नही कर पाती थी। अब फ़ौज में भर्ती हुए बाबा जी की बात करते हैं। हमारे वे तत्कालीन बाबा जी, जो उस समय छरहरे-सजीले युवक ही थे, फ़ौज में भर्ती हो गए। संभवतः कोई युद्ध छिड़ गया था, जिसमें फ़ौज में भर्ती सभी नवयुवकों को झोंक दिया गया। ( संभवतः प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया हो।) उस समय या तो उनका नया-नया विवाह हुआ था या फिर विवाह के पश्चात् गवना (गौना) हुआ था। उनकी पत्नी बहुत सद्गुणी थीं। स्वेटर बुनतीं थी ; घी बहुत अच्छा बनातीं थीं। स्वेटर और घी बनाकर बेचा करतीं थीं, जिससे अच्छी आय हो जाती थी। गुजर-बसर अच्छी तरह चल रही थी। सौभाग्य से उनकी पत्नी गर्भवती हुईं। परंतु गर्भ के दूसरे-तीसरे माह में उन ‘बाबा जी’ — वे वाली मइया के पति — को युद्ध में भेज दिया गया। संभवतः युद्ध लंबा चला हो, क्योंकि दो महीने या तीन महीने यों ही प्रतीक्षा और दैनिक चर्याओं में बीत गए। और…..
अचानक वज्रपात हुआ ! युद्ध भूमि में उन बाबा जी की मृत्यु हो गई। संभवतः गोली लगी हो ; तलवार या चाकू का वार भी हो सकता था; क्योंकि आधुनिक युद्ध प्रणाली से तब तक युद्ध प्रचलित नहीं हुए थे। हमें तो यह प्रथम विश्व युद्ध की घटना प्रतीत होती है, क्योंकि आधुनिक ब्रिटिश मिलिटरी तभी बनी थी। अस्तु ! युद्ध काल कोई भी रहा हो, वे बाबा जी युद्ध भूमि में खेत हो रहे (वीरगति को प्राप्त हुए)।
मृत्त देह के ग्राम पहुँचने से पूर्व ही अग्नि समान तथा वायु वेग से मृत्यु का समाचार ग्राम पहुँच गया। रीति तथा परंपरानुसार रोआ-रोहट (रोना-धोना) मच गई। एक ओर घर के कुछ पुरुष मृत्त देह को लाने रवाना हो चुके थे, तो कुछ अंतिम संस्कार की तैयारी करने में जुट गए थे। दूसरी ओर घर की स्त्रियाँ उन मृत्त बाबाजी की सद्य: विधवा से उनकी इच्छा पूछने लगीं, “बोला हो ! अब तू अपना मरद बिना जियबू ! अ कि मरबू !” (बोलो भई ! अब तुम अपने आदमी के बिना जीवित रहोगी कि मरोगी ?) उस नवविवाहिता गर्भवती को कुछ नहीं सूझ रहा था। उसके मौन को भाँप, सब स्त्रियाँ, उसे उसके हाल पर छोड़, विलाप करने लगीं। संभवतः बीच-बीच में ‘बेहया !’ “पति को खा गई !” जैसे ताने भी मार रहीं होंगी। बहती हुई सूनी ; वीरान आँखों से उस निरीह स्त्री ने स्वार्थ का नग्न नृत्य देखा। गर्भावस्था में भी उसे किसी ने भोजन तो दूर, एक बूँद जल तक नहीं पूछा ; मानों, पति के न रहने पर एक स्त्री अनुपयोगी वस्तु से अधिक कुछ न हो !
इस देश में कन्या – शिक्षा एवं आत्मनिर्भरता न होने का इससे दु:खद परिणाम और क्या हो सकता था ? पर यह मइया तो आत्मनिर्भर थीं ; घी और स्वेटर बना कर बेचतीं थीं ? तब संभवतः घोर युवावस्था तथा लज्जा संरक्षण का प्रश्न होगा ! जो भी हो ; उस स्त्री को भूखा-प्यासा, उसके हाल पर, विचार करने के लिए छोड़ दिया गया। अंततः चारों ओर शून्यता और निरीहता का अनुमान कर उस निरीह तथा विवश स्त्री ने पति की राह चुन ली। स्त्रियों द्वारा समस्त पुरुष परिवार को संदेश भिजवा दिया कि पति के साथ एक चिता उसकी भी सजाई जाए। किसी को कोई आपत्ति न थी। अतः चिता तैयार हो गई। जीवित स्त्री पति की देह के साथ श्मशान घाट न जा सकी होगी, अतः ग्राम के अहाते में ही एक समतल रिक्त भूखंड पर चिता सज गई। उस चिता पर वह संपूर्ण विवाह शृंगार कर, विवाह की साड़ी पहन तथा समस्त आभूषण धारण कर ; खुले केश कर बैठ गई। साथ ही उसने एक घड़ा घी भी अपने साथ ले लिया। वह घी, जो उसने स्वयं तैयार किया था। उसने कहा, कि जब आग पकड़ेगी, तब उस। घी को वह अपने ऊपर उड़ेल लेगी या आग की गर्मी से घी स्वयं खौल कर चारों ओर फैल जाएगा। दोनों स्थितियों में वह आसानी से जल जाएगी।
कितनी सरलता से कह दी होगी उन्होंने, वह बात ! किंतु ! कितना कष्टदायक और पीड़ादायक रहा होगा वह धीमा अंत ! जिसकी कल्पना मात्र वह स्त्री ही जानती होगी। आग की तीव्रता बढ़ने पर घी का क्वथनआंक (ज्वलनशीलता अथवा ताप) बढ़ता गया और अग्नि ने मइया को घेर लिया। उनकी चीख-पुकार पर संपूर्ण ग्राम मौन रह गया। अभी वह हृदयविदारक मृत्यु पूर्ण भी न हुई थी, कि एक अन्य सन्न कर देने वाला प्रसंग जन-मानस के आगे घट गया। उस प्रसंग के लिए संपूर्ण चितबड़ागाँव नियति का अपराधी बन गया।
जलती हुई मइया तो मूर्छित होकर मृत्यु का ग्रास बन रहीं थीं ; किंतु उनका उदर (पेट) तथा गर्भाशय फट गया। वह छठे माह में पल रहा, गर्भस्थ भ्रूण, मृत्त होकर, उछल कर धरती पर आ गिरा। यह अपराध अक्षम्य था। शास्त्रों में भी गर्भवती स्त्री पर दया करने का विधान है, चाहे वह कितनी बड़ी अपराधिनी ही क्यों न हो ! देवी तारा, माता सीता, उत्तरा आदि अनेक नारियों को तत्कालीन समाज ने गर्भावस्था में संरक्षण दिया था, परंतु! हा! चितबड़ागाँव का दुर्भाग्य! उस माँ और उसके गर्भस्थ शिशु के प्राण हनन कर लिए गए।
जिस प्राणी की अकाल मृत्यु होती है, उसका, (तथा, यदि वह निर्दोष हो, तो और भी अधिक,) उसका श्राप घातक होता है। निरीह, विवश, निर्दोष अबला स्त्री सती मइया ‘सती’ हो गईं। वे तथा उनका शिशु बालक मृत्त हो गए ! मर गए ! परंतु! निज अकथ्य श्राप से पूरे चितबड़ागाँव को शापित कर गए! संपूर्ण ग्राम के समस्त परिवारों में शोक की लहर दौड़ गई। सन्नाटा पसर गया ! आगामी अनबूझ अनिष्ट का भय व्याप्त हो गया। परंतु अब क्या हो सकता था ? होनी तो हो गई थी। उसे कौन टाल सकता था ? कौन पलटा सकता था ? संभवतः परिवार में लोग मइया की गर्भावस्था से अनजान भी होंगे, क्योंकि स्त्रियाँ लंबे समय तक अपनी गर्भावस्था को छिपा भी लेतीं थीं। अस्तु ! अब क्या हो सकता था ? और क्या होना चाहिए था ? — ऐसे प्रश्न और उन पर विचार अब व्यर्थ थे। अब तो अनिष्ट रोकने का विधान ही एकमात्र उपाय था। संभवतः पंडितों, ज्ञानी जनों, ज्योतिषियों, आदि से विचार-विमर्श किया गया होगा। इसका बीड़ा भी गाँव की स्त्रियों ने ही उठाया ।
उपाय यह हुआ कि, सर्वप्रथम तो उस ‘सती स्थल’ को एकांत छोड़ दिया गया। उस पर माता तथा शिशु की स्मृति में एक बड़ा तथा एक बहुत छोटा — दो चबूतरे बनवाए गए। उन चबूतरों को माता-पुत्र की समाधी स्थली घोषित किया गया तथा उसे नाम दिया गया — ‘सती चौरा’ (सती चउरा या सती चौक)। उन दिवंगत माता को ‘सती मइया’ कह कर संबोधित किया जाने लगा। उस घटना के बाद संभवतः भय के मारे ही यह ‘सती-प्रथा’ रोक दी गई होगी। विधवा स्त्रियों का जैसे-तैसे भरण-पोषण किया जाने लगा होगा।
स्त्रियों ने, अपने पुत्रों के विवाहों के उपरांत, नवविवाहित जोड़ों के सुखी गृहस्थ जीवन का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए ‘सती मइया’ को पूजा चढ़ानी आरंभ कर दी, जो आज तक अनवरत जारी है। इस पूजा में लाल रंग की साड़ी, सिंदूर, लाल बिंदी, लाल चूड़ियाँ, आदि से लेकर समस्त नारी शृंगार की सामग्री, मिष्ठान्न, फल आदि तथा यथासंभव दक्षिणा, घी, दूध, दही, सीधा (आटा) व अनाज, आदि सामग्री लेकर सती चौरा की पूजा की जाती है (जिसकी जैसी सामर्थ्य हो)। संभवतः कुछ सासें शिशु के झबले आदि भी चढ़ातीं हों, जिससे उनकी वधू को पुत्र उत्पन्न हो।
पूजा के बाद वह सामग्री किसी भी दाई ; काम करने वाली स्त्री को, जो सुहागन हो, दे दी जाती है, किंतु स्वयं प्रयोग नहीं की जाती।
और…. इस प्रकार आज तक सती मइया को प्रसन्न व संतुष्ट रखने के प्रयास जारी हैं। संभवतः भविष्य में हमारे न रहने पर भी ये प्रयास जारी रहें। हमारी तो भगवान से यही प्रार्थना है। क्योंकि…… उस निरीह, विवश, अबला नारी को संपूर्ण मानव समाज सुखी जीवन तथा पुत्र सुख तो नहीं दे पाया : ऐसी श्रद्धांजलि ही देता रहे ! ………
जय सती मइया…….. 🙏🏻🙏🏻
……. श्री …….