(ऊँ श्री गणेशाय नमः) वापसी (कहानी) (ऊँ श्री भगवते वासुदेवाय नमः) (ऊँ नमः शिवाय)

…. कहा था उसने…. मत जाओ….! वह नहीं मिलेगा….! मिलकर भी नहीं मिलेगा….! बहुत बुरा होगा आपके साथ….! बहुत अपमान होगा….! रोकर वापस आओगे….! अपना सबकुछ गँवा कर आओगे….! पर नहीं मानी थी मैं….! पिछली स्मृतियों के आधार पर चली गई एक बार फिर ‘औरंगाबाद’! उससे मिलने….! क्या सच….? मिला वह मुझसे….? दो बड़े प्रश्न ! जिनका उत्तर खोजने में मुझे भी एक वर्ष लग गया।

मैं औरंगाबाद गई थी, उससे मिलने ; पर ‘उससे’…. कौन ? वह…. श्रेय….! मेरा श्रेय….! ‘मेरा’ ? न-न ; ‘मेरा’ तो मेरा भ्रम था। कभी न मिटने वाला एक ऐसा भ्रम, कि अगर औरंगाबाद न जाती, तो सालों-साल उसी भ्रम में लिपटी रहती। अच्छा ही हुआ, जो चली गई। भ्रम तो मिट गया; सच्चाई से परिचित तो हो गई ! भले ही भीषण अपमान सहना पड़ा; भले ही बड़ी पूंजी खर्च करनी पड़ी। कम से कम सच जानकर तो वापस आई! वापस आकर मचलती हुई बेचैनी तो मिट ग‌ई! पर शपथ है सबको ; मेरे प्रेम की जलन और अपमान की पीड़ा कोई न देखे। कुछ नहीं मिलेगा किसी को; थोड़ी देर के मनोरंजन के अतिरिक्त कुछ नहीं प्राप्त होगा। अरे! देखना है तो मुझे देखो ; मेरे कामों को देखो ; मेरे व्यवहार को देखो ! मेरे दु:खों को तो लेशमात्र भी कम नहीं कर सकते तुम ! मेरे तो छोड़ो ; तुम तो अपने दु:खों और कष्टों को भी कम नहीं कर सकते ! प्रमाण दूँ ! हाथ कंगन को आरसी क्या ? अगर कम कर सकते, तो दूसरों के आगे उनका रोना रो रहे होते ? सच बताओ ! सुनकर कड़वा लग रहा है न ! तो छोड़ो मेरे हृदय की चीत्कार को सुनना!

पर चलो ! मैं ही बताती हूँ कि हुआ क्या था ? पिछली मुलाकात में, जब मैं औरंगाबाद गई थी, श्रेय से मिलने , श्रेय मेरा प्यार बन चुका था। उन्ही स्मृतियों को समेटे हुए मैं वापस आई थी। वापस आकर भी वहीं की रहती थी मैं। प्रतीत होता था; तन तो यहाँ है, परंतु मन को वहीं छोड़ आई हूँ। इसीलिए तो; छह माह में ही, एक बार पुनः जाने का मन बना लिया। इस बीच किसी एक मातृ भक्त से बातचीत होने लगी। उसे मैंने सब कुछ बताया। उस मातृ भक्त ने अविलंब मुझे जाने से रोका। बहुत समझाया। कहा, कि आप भावों के आवेश में बह रहीं हैं। आपको वास्तविकता समझ नहीं आ रही। यदि आप ग‌ईं, तो इसे केवल विनाशकाले विपरीत बुद्धि कहा जाएगा, क्योंकि आप के साथ भयंकर बुरा होगा। आप समय, धन, सामर्थ्य, मान-सम्मान सब गँवा कर आएँगी। एक बात और कही, कि यदि आप भावी का विचार किए बिना ग‌ईं, तो आपको बचाने वाला कोई नहीं होगा। तब आप एक काम कीजिएगा। जितना शीघ्र हो सके, वहाँ से निकल आइएगा। केवल इसी एक रूप में आपको माँ आदिशक्ति का साथ मिलेगा। बस समझ लीजिए, कि मैं उसकी सारी बातें सुनकर भी चली गई। फिर वही हुआ, जो होना था। उससे भेंट तो हो गई, किंतु , उसने मेरी एक न सुनी। स्वयं तो कुछ नहीं कहा, परंतु स्त्री को स्त्री से लड़वाने का कार्य किया। अपनी स्त्री को ही आगे कर दिया। उसकी स्त्री ने मेरी मर्यादा व अस्तित्व, दोनों का वाक् हनन किया। मेरी आँखों से अश्रु धारा अनवरत बहने लगी। अब मेरे लिए वहाँ रुकने का प्रत्येक प्रयोजन समाप्त हो गया था। मन में पीड़ा व आक्रोश भर चुका था। न‌ए सिरे से एक दिन पहले ही टिकट बनवा कर वापस अपने घर लौट आई।

इस बार मैं सचमुच लौटी थी ; सारी आशाओं को मिटाकर लौटी थी ; सारे संबंध तोड़ने का निर्णय लेकर लौटी थी। उसने प्रथम भेंट में मुझे आदर और प्रेम के दो उपहार दिए थे। लौटने के बाद सबसे प्रथम कार्य, जैसे ही मुझे अवकाश मिला, उसके उपहार लौटाना था। मैंने डाक विभाग की त्वरित डाक प्रेषण सेवा से उसे उसके उपहार भेज दिए। उसके बाद….. कुछ नहीं ! मेरे जीवन में ऐसा कुछ सम्मिलित ही नहीं हुआ था, जो मैं उसे वापस करती। एक अनजानी सी इच्छा मन में रह-रहकर ज़ोर मारती रहती थी, कि शायद….! शायद वह मुझे कभी याद ही कर ले ! मुझे कभी कोई संदेश भेज दे ! कभी मुझे फोन ही कर ले ! किंतु वैसा कभी नहीं हुआ । उसकी ओर से नीरव शांति ; या यों कहें ; नीरव विश्रांति छा गई। यही विश्रांति आज तक अनवरत है। मैंने अपनी ओर से संपर्क बनाए रखने के प्रयास किए, परंतु मेरे प्रयास विफल हुए । श्रेय ने मेरे किसी संदेश का उत्तर नहीं दिया ; कभी नहीं दिया ; नहीं दिया, तो नहीं दिया ; उसने तो मेरे कितने संदेश देखे , कितने नहीं ; मैं यह भी नहीं जानती। मैं इन प्रतिक्रियाओं से विशेष विचलित नहीं हुई, क्योंकि मेरा वश मात्र मुझ पर है, अन्य पर नहीं।

इस अंतराल में कुछ काल बीत जाने पर मेरा संपर्क श्रेय के एक निकटतम साथी वल्लार जी से हुआ। वल्लार जी मुझे फ़ोन करने लगे। मुझे वल्लार जी से बातों में कोई रुचि न थी ; किंतु हृदय में एक आशा संचरित हुई ; संभवतः वल्लार जी के माध्यम से श्रेय से मेरा पुनः संपर्क हो सके। यह संतुष्टि भी होती थी, कि कम से कम श्रेय का समाचार और उसके कुछ चित्र तो प्राप्त हो जाते हैं। यह प्रसंग कुछ समय तक चलता रहा। प्रारंभ में वल्लार जी ने स्पष्टता से श्रेय के समाचार मुझ तक पहुँचाए । मैं कुछ संतुष्ट होने लगी। परंतु संभवतः विधाता मुझे और श्रेय दोनों को सत्य से परिचित करवाना चाहते थे। माह भर ही बीता होगा कि मेरे हृदय में विचार उत्पन्न हुआ कि यह वल्लार जी कहीं मेरे और श्रेय के मध्य संपर्क तार जोड़ते हुए अपना लाभ तो नहीं कर रहे। अपने जीवन के पूर्वानुभवों के आधार पर मैंने वस्तु-स्थिति को तुरंत भाँप लिया। फिर अपने संशय को पुष्ट करने के लिए मैंने विवेकपूर्वक प्रथम तो वल्लार जी को कोई संदेह नहीं होने दिया। तत्पश्चात् गोपनीय ढंग से श्रेय की मन: स्थिति को समझने का प्रयास किया। इसका माध्यम भी वल्लार जी थे। मैं उनके व्यवसाय के विषय में विनम्रतापूर्वक पूछती रही तथा श्रेय के विषय में भी पूछती रही। वे भी निश्चिंत होकर मुझे सबकुछ बताते जा रहे थे। उनकी विभिन्न जानकारियों से मुझे अनुमान हो गया कि, श्रेय की हृदय-स्थली को विकृत संबंधों की अनुभूति का बीज चीर कर अपनी जड़ें तथा अंकुर को विकसित करने लगा है। श्रेय के हृदय में यह विचार पनपने लगा है, कि वल्लार जी और संतुति (अर्थात् मैं) के विकृत प्रेम-संबंध बढ़ रहे हैं। यह बीज अंकुर बनकर फूटता तथा बढ़कर एक सुदृढ़ ; विशाल वटवृक्ष बन जाता, तब तो मेरा जीवन ही कलंकित और व्यर्थ हो जाता। कोई सोच सकता था, कि एक पर पुरुष अथवा अनजान पुरुष के प्रति कलंकित व्यर्थ जीवन का विचार ही क्यों करना ? जीवन हमारा है। उसे हम जैसे जियें। अब सत्य बताती हूँ। प्रश्न अन्य के विचार व भावनाओं का नहीं है। प्रश्न है ; स्वयं की अस्मिता का ! स्वयं के स्वाभिमान का ! जो कुछ है ही नहीं ; जिसका कभी विचार ही नहीं किया ; उसका बीज भी क्यों बने ? बस फिर तो जैसे तय कर लिया था।

वल्लार जी की वास्तविकता को उसके मुखमंडल के समक्ष सिद्ध करना आवश्यक था। अतः मैंने विवेकपूर्ण नीति से बातचीत करते हुए वल्लार जी को उनके व्यवसाय में कुछ सहायता का प्रस्ताव दिया। वे सहमत हो गए। मैंने उन्हें श्रेय के माध्यम से सहायता माँगने का निवेदन किया। उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया तथा मुझे बुरा-भला कहा। उन्हें समझाने का प्रयास किया, तो उन्होंने मुझे कुछ अपमान जनक चित्र तथा संदेश भेजे। मेरे लिए इतना पर्याप्त था। मैंने उनकी उस प्रमाणित वास्तविकता को उनके समक्ष प्रस्तुत कर दिया। वे एकाएक सकपका ग‌ए, तथा अपनी स्पष्टता प्रस्तुत करने लगे। उन्होंने मुझे सम्मानित करने तथा स्वयं को निर्दोष; सरल सिद्ध करने का भरपूर प्रयास किया, परंतु मुझे इसकी आवश्यकता ही नहीं थी। काँटे से ही काँटा निकाला जा सकता है। मैंने भी श्रेय के हृदय में पनप रहे कलंक के काँटे से वल्लार जी द्वारा मुझे कलंकित प्रमाणित किए जाने के काँटे को उखाड़ फेंका। मेरा हृदय शीतल व शांत हुआ। तत्पश्चात् वल्लार जी को बड़े ही स्पष्ट शब्दों में मैंने उनसे आगे संपर्क अनवरत रखने में असमर्थता तथा अनिच्छा व्यक्त की तथा संबंधों को वहीं विराम दे दिया। साथ ही उन्हें सावधान भी किया, कि भविष्य में वे मुझसे कोई संपर्क न साधें। यदि जीवन में कभी श्रेय से मिल सकी, तो उन्हीं के आदेश पर आपसे बात होगी। उनकी मनुहार का मुझ पर लेशमात्र भी प्रभाव न हुआ, मानों हृदयकमल सत्य के पंक में खिलकर ऊपर उठ चुका था। अब पंक के जल की बूँदे उसे प्रभावित नहीं कर सकेंगी। यह संपर्क भी समाप्त हुआ। पर…. मन तो चंचल है ! ‘कौतुहल’ मन का स्वाभाविक गुण है। कोई कितना ही कहे ….. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ! अपनी क्रियाओं का परिणाम जानने की इच्छा तो सबको होती है। मैंने भी पुनः अपने गोपनीय तरीकों से वल्लार जी तथा श्रेय की प्रतिक्रिया जानने का प्रयास किया। ज्ञात हुआ ; वल्लार जी मुझसे रुष्ट भी हैं ; भीत भी हैं । अंतिम अति विपरीत किंतु सत्य, उनके हृदय में मेरा आदर-सम्मान और बढ़ गया है।

दूसरी ओर श्रेय ! मेरा प्रयास सफल हुआ। श्रेय के मन में अंकुरित होने से पूर्व ही गड़ा हुआ बीज नष्ट हो गया। मेरी ओर से उसका मन निर्मल हो गया, जिसमें एक न‌ए विश्वास ने जन्म लिया, “संतुति मेरी है और आजीवन मेरी रहेगी। लाख झंझावात आएँ; मैं और वह एक-दूसरे से मिल न पाएँ ; किंतु वह संपूर्ण निर्मल हृदय से मेरी है ; मेरी रहेगी ।” मुझे भी संतोष हुआ कि आज वह मुझसे दूर भले हो ; मुझसे कोई संपर्क न करता हो ; चाहे मुझसे प्रेम भी न झलकाता हो ; परंतु उसे मेरे सत्व पर विश्वास है ! उसे मेरे साथ पर भरोसा है ! उसे मेरे प्रेम पर विश्वास है । अच्छा ही हुआ, जो वल्लार जी हमारे बीच आ ग‌ए। आज हम दोनों को यह अनकहा विश्वास तो हो गया, कि दूर होकर भी हम आत्मिक रूप से एक-दूसरे के प्रेम-बंधन में जकड़े हुए हैं।

उसके बाद से अब ….

नीरव शांति है। कोई हलचल नहीं । न श्रेय मेरे प्रति सक्रिय है , न मैं ही उसके प्रति सक्रियता जता रही हूँ। शांत हो गई हूँ। दोनों ही दिशाओं से परम शांति है। मानों समय की सरिता को संभाले दोनों किनारे शांति से साथ चले जा रहे हैं । अपने अस्तित्व को टूटने ; बिखरने नहीं दे रहे ; नहीं तो सलिला मार्ग भटक कर विनाश-लीला कर देगी। अतः शांत ; एकदम शांत दोनों किनारे चले जा रहे हैं। और…. उन किनारों के बीच जीवन भी समय-सलिला के साथ चला जा रहा है। भविष्य की चिंता किए बिना ; वर्तमान के कर्तव्यों को कर्म मानकर किए जा रहा है और चला जा रहा है। यही तो सत्य भी है न ! यही तो मानव कर्म भी है न! वर्तमान में जीना ….. भविष्य की चिंता न करना ….. ! लगता है , गाड़ी भटकते-भटकते पटरी पर आ ही ग‌‌ई है। आज मेरा वापस लौटना सफल हो गया है। प्रतीत होता है, मैं सचमुच लौट आई हूँ ; अपने वास्तविक जीवन में। 🙏🏻🙏🏻

….. श्री …..!

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