(ऊँ श्री गणेशाय नमः ) सोने का घंटा (कहानी)

(ऊँ नमः शिवाय) (ऊँ नमः मातृ आदि शक्ति) (ऊँ नमः भगवते वासुदेवाय नमः)

आधार : आपने उस चोर भक्त की कथा तो सुनी होगी, जो शिवालय में शिवलिंग के ऊपर लटका घंटा चुराने लगा था। शिव जी के साक्षात् दर्शन होते ही वह उनकी स्तुति कर मोक्ष माँग बैठा। उस कथा से हमने केवल अपनी कहानी का शीर्षक लिया है। शेष कहानी आप स्वयं पढ़कर ग्रहण करें।

देवी का एक बड़ा साधारण मंदिर था। उस मंदिर में देवी की बड़ी साधारण प्रतिमा थी। इतनी साधारण कि उसे देख देवी जैसा कोई आभास भी नहीं होता था। उस मंदिर के पुजारी भी बड़े साधारण थे, किंतु बड़े कठोर भी थे। आस-पास अन्य मंदिर भी थे ; एक से बढ़कर एक; भव्य तथा समृद्ध। लगभग उन सभी मंदिरों में भक्त, श्रद्धालु यात्री तथा दर्शनार्थी आते ; दर्शन करते ; पूजा-अर्चना करते ; बड़े-बड़े चढ़ावे चढ़ाते। परंतु उस साधारण मंदिर में भूले-भटके ही कोई भक्त आता तथा पुजारियों को कुछ प्रसाद या भेंट दे जाता। अपने जीवन-यापन के लिए वे इधर-उधर कुछ थोड़ा-बहुत पूजा-पाठ करके अर्जित कर लेते। उसी में से देवी को भी भोग लगा देते। दिवस बीतते जा रहे थे ; वर्ष बीतते जा रहे थे ; न भक्त, न श्रद्धालु , यहाँ तक कि पुजारियों के मन में भी देवी के प्रति कोई आस्था न थी। देवी भी निज मन में अपने भाग्य के प्रति व्यथित रहती। क्रोध करती; परमपिता परमात्मा के सम्मुख रोती परंतु अपने भाग्य को कभी न कोसती। सदा अपने साधारण अस्तित्व का ही ध्यान रखती।

समय कैसे परिवर्तित होता है , यह किसी को अनुभव नहीं होता। लोग तो बस अपनी श्रेष्ठता में ही डूबे रहते हैं। एक दिन एक बड़ा धनवान व्यक्ति अपना अति महत्त्वपूर्ण कार्य सिद्ध करने के उद्देश्य से वहाँ से होकर जाने लगा। सभी मंदिरों के दर्शन करना उसे समय की व्यर्थता प्रतीत हुई, परंतु अन्य समाज की निंदा से बचने के लिए तथा भगवान की शक्ति का प्रमाण प्राप्त करने के लिए वह हठ कर बैठा कि उसी साधारण मंदिर में दर्शन करेगा। उसने एक नारियल, कुछ फल-फूल तथा कुछ रुपए देवी को अर्पित किए तथा अपना कार्य सिद्ध होने की प्रार्थना कर वहाँ से चला गया। उस दिन प्रथम वार पुजारियों ने देवी को दूध अर्पित किया। संयोगवश उस व्यक्ति का कार्य भरपूर सफलता से पूर्ण हो गया। अब वह व्यक्ति अपने प्रत्येक नये अथवा आवश्यक कार्य से पूर्व उसी देवी के मंदिर में जाकर प्रार्थना करता तथा कुछ अधिक फल-फूल, नारियल तथा रुपए चढ़ाता। पुजारी अब पूर्व की अपेक्षा कुछ नरम पड़ ग‌ए थे, परंतु देवी को उसके साधारण होने का भाव जताते रहते थे। “देवी को आय प्राप्त होने लगी”, किंतु देवी अब भी साधारण थी

उस व्यक्ति के मनोरथ पूर्ण होने की चर्चा अन्य लोगों में फैलने लगी, तब कौतुहल भाव से अन्य जनमानस भी चढ़ावे तथा रुपए लेकर उस साधारण मंदिर की साधारण देवी के दर्शन को पहुँचने लगे और उन सब की कामनाएँ पूरी होने लगीं। “देवी की आय बढ़ चली थी।” किंतु देवी अब भी साधारण थी। ऐसे में जब कुछ वर्ष बीत गए, तब एक अन्य अधिक धनवान भक्त ने अपना भाग्य आजमाया तथा अपनी मनोकामना पूरी होने पर उसने देवी के द्वार पर एक सोने का घंटा टांग दिया। सोने का घंटा देखते ही भक्त आकर्षित होकर उसे बजाने की लालसा से देवी के द्वार पर दर्शनों की प्रतीक्षा में पंक्ति लगाने लगे तथा अपनी बारी आने पर देवी से प्रेम भाव से लिपट-लिपटकर उसकी भक्ति करने लगे। जाने देवी को क्या हुआ ? वह अपनी साधारणता को तो नहीं भूली, किंतु उन भक्तों के प्रेम में ऐसी बहने लगी कि उनमें से किसी के साथ उसके मंदिर में जाकर रहने की कामना करने लगी। उसे अपने मंदिर के पुजारियों की उपेक्षा खलने लगी। पुजारी संभवतः देवी के मनोभाव समझ ग‌ए थे । अतः वे उसे तीक्ष्ण उपदेश देने लगे। देवी उनके उपदेशों का मर्म समझती थी। अतः उसने संयम बनाए रखा। वह अब भी साधारण थी।

पुजारियों के घर की स्त्रियों तथा कन्याओं ने जब देवी को चढ़ते बड़े-बड़े चढ़ावे तथा धन देखा, तो उन्होंने देवी को सुंदर व आकर्षक वस्त्र तथा बनाव-शृंगार देना आरंभ किया। किंतु इतना बनाव-शृंगार करके भी देवी साधारण ही बनी रही । धीरे-धीरे उसके द्वार पर लटके सोने के घंटे में भक्त और सोना मढ़ने लगे तथा उसे अर्पित होने वाली धनराशि भी बढ़ने लगी। ऐसे में एक अनूठा नया भक्त देवी के मंदिर में दर्शन को आया। एकदम दीन-हीन दरिद्र प्रतीत होने वाला, किंतु कठोर परिश्रमी। अन्य भक्तों तथा देवी के मंदिर के पुजारियों ; उनके परिवार जनों आदि ने उसे देवी के दर्शन करने से रोका, परंतु देवी के प्रभाव से वह मंदिर में आ गया। देवी के चरण छूकर उसने आराधना आरंभ की। धीरे -धीरे वह लगभग प्रतिदिन देवी के दर्शनों को आने लगा। चरणों से धीरे-धीरे वह देवी की देह तक पहुँचा और फिर लिपट-लिपटकर प्रेम भाव से भक्ति करने लगा। देवी उसके प्रेम-भाव में बहने लगी। अन्य भक्त आते, तो भेंट तथा चढ़ावे की अर्पण सामग्री लेकर आते ; तब भी देवी अधिक कृपालु नहीं होती, किंतु जाने उस भक्त में ऐसा क्या अनूठा था कि, वह कुछ लेकर नहीं आता था ; बस आते ही देवी के चरणों में बैठ जाता; उस पर देवी की कृपा बरसने लगी। फटेहाल भक्त मूल्यवान वस्त्र धारण करने लगा। मूल्यवान वस्तुओं का प्रयोग करने लगा। इतना सब होते हुए भी देवी अब भी साधारण ही थी

इधर देवी के मंदिर में जैसे कुछ चमत्कारिक होने वाला था।देवी की कृपा से द्वार पर लटके उस घंटे का एक भाग ऐसा पोला और लचीला बन गया , जिससे स्वर्ण के कण टूट सकें। बस फिर क्या था; जैसे ही भक्त थोड़ा तीव्र घंटा बजाते, तो कभी थोड़ा; तो कभी अधिक स्वर्ण गिरता। भक्त उसे उठाते, तो देवी का चमत्कार समझ अपने साथ ले जाते। अनेक भक्तों ने छोटे-बड़े स्वर्ण-कण प्राप्त किए। कुछ दानवीर भक्त उसमें सोना बढ़ाते थे, तो शेष उससे झरने वाले स्वर्ण-कणों को ले जाते थे। वह अनूठा भक्त भी देवी के इस प्रसाद को प्राप्त करने का विचार करने लगा। उसने देवी से प्रेम तथा भक्तिभाव को इतना बढ़ा दिया कि, देवी को वह अनन्य प्रतीत होने लगा। अब वह जब बलपूर्वक स्वर्ण-घंट बजाता, तब बड़े स्वर्ण-पक्ष उसके हाथ लगते। देखते-देखते वह धनवान होता गया। बड़ी-बड़ी गाड़ियों में घूमने लगा। उसने नया व्यवसाय आरंभ किया, जो खूब फल-फूल रहा था। परंतु देवी के पास वह उसी दीन भाव से आता था तथा ऐसा जताता था, कि वह अति निर्धन है। उसे आय अधिक नहीं होती तथा वह देवी के स्वर्ण-घंट में लेश-मात्र भी स्वर्ण नहीं बढ़ा सकता। कभी-कभी वह कुछ स्वर्ण जोड़ता भी था, परंतु कुछ ही समय पश्चात् उससे अधिक ले लेता था। इधर अन्य लोलुप भक्तों का भी स्वर्ण-कण प्राप्त करना चलता रहा।

मंदिर के पुजारी तथा उनके परिवार के सदस्य चिंतित रहते कि देवी की कृपा रुक क्यों नहीं रही ? उन्होंने अनेक प्रयास किए, कि स्वर्ण-घंट कठोर हो जाए, किंतु उसका एक भाग कोमल हो ही जाता। हारकर वे सब निरुपाय हो ग‌ए। उधर वह भक्त देवी की कृपा का निर्भय होकर लाभ उठाता रहा। देवी अब और भी साधारण हो गई थी।

उस प्रेमी भक्त को किसी प्रकार की चिंता नहीं थी। उसे अटूट विश्वास था, कि देवी उसका साथ कभी नहीं छोड़ेगी। होता भी क्यों न; वह विश्वास उसे देवी ने ही तो दिया था। देखते-देखते दस वर्ष बीत गए। इन दस वर्षों के मध्य मंदिर तथा पुजारियों के कोष में इतनी धनराशि एकत्र हो ग‌ई , कि मंदिर का पुनर्निर्माण हो गया । अनेक दयालु व उदार हृदय भक्तों ने भी मंदिर के निर्माण कार्य में सहयोग दिया। उस भक्त ने मंदिर के संपूर्ण निर्माण को ध्यानपूर्वक देखा। बीच-बीच में थोड़ा-बहुत सहयोग भी किया। उस अवधि में उसने देवी की अपने पर अगाध और अटूट कृपा को साक्षात् अनुभूत किया। निर्माण कार्य के चक्र में मंदिर के कपाट केवल कुछ व्यक्तियों के लिए खुलते थे, जिनमें वह निर्बाध था। निर्माण कार्य पूर्ण हुआ। मंदिर एकदम नवीन होकर जगमगाने लगा। अब देवी की नयी प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा की जानी चाहिए थी। एक भव्य प्रतिमा की स्थापना का विचार किया जाने लगा। देवी की इच्छा के बिना तो कुछ संभव ही नहीं था। सर्व जनमानस को अनुभूत हुआ कि देवी अपनी साधारण माटी की प्रतिमा में ही संतुष्ट हैं और मंद-मंद मुस्कुरा रहीं हैं। अतः उसी माटी प्रतिमा की ही प्राण-प्रतिष्ठा की गई। देवी ने अपने सर्वथा साधारण होने का प्रमाण दे दिया था

वह विशिष्ट भक्त अब भी निर्बाध आता था व लगभग सभी देवी-यात्राओं में भी रहता था। शनै:-शनै: देवी कुछ उदासीन सी प्रतीत होने लगी। देवी को उसके प्रेम तथा भक्तिभाव में छलावा अनुभूत होने लगा। अब वह भक्त देवी के दर्शनों से थोड़ा वंचित होने लगा। देवी जब उसका आह्वान करती, तो वह कारण व विवशता बता कर मंदिर न आता। जो स्वर्ण उसने देवी को अर्पित करने को एकत्र किया, अपने बंधु के साथ छल से स्वयं एक भाग रख लिया। देवी से अधिकाधिक स्वर्ण एवं धन प्राप्त करने के अनुष्ठान करने लगा। तब भी देवी स्वयं अति साधारण रह कर उसकी कामना पूर्ति करती रही। एक वर्ष और व्यतीत हो गया। अब जब उस भक्त ने देखा, कि देवी उस पर कृपा नहीं कर रही, तब उसने अनेक कठिन अनुष्ठान किए। देवी ने अब कृपा करना बहुत कम कर दिया था। अब देवी उसके मोह-जाल से मुक्त होने लगी थी। उसके लिए मंदिर के कपाट बंद रहने लगे थे। तत्पश्चात् भी यदा-कदा दर्शन-यात्रा अथवा शृंखला-यात्रा के समय वह देवी का विशेष आशीर्वाद प्राप्त कर लेता। देवी और साधारण हो गई

एक अन्य वर्ष व्यतीत हो गया। बारह वर्ष व्यतीत हो चुके थे। अब देवी तथा विशिष्ट भक्त का कोई मेल-मिलाप नहीं था। देवी एकांत में मनन किया करती। दयालु व उदार भक्त देवी को नियमित धनादि अर्पित करते। कुछ भक्त लेश-मात्र स्वर्ण-कण भी प्राप्त करते। लोलुप भक्तों पर देवी की कृपा अब कम होती जा रही थी। इस संपूर्ण दीर्घ घटना-क्रम में देवी का नाम तथा प्रभाव विस्तृत हो गया था। देवी का मंदिर अब साधारण नहीं रह गया था, परंतु देवी अब भी साधारण थी। संभवतः देवी अपने वास्तविक साधारण स्वरूप को त्यागना ही नहीं चाहती थी। वह अखंड ब्रह्म के माटी स्वरूप में ही रहना चाहती थी। एक दिन देवी ने विचार किया कि उसका विशिष्ट भक्त उसकी भक्ति नहीं करता; न ही उसके दिव्य स्वरूप से मोहित है। वह केवल उसके द्वार पर लटके स्वर्ण-घंट से झरने वाले स्वर्ण की लालसा में आता है। जिस दिन उसे स्वर्ण प्राप्ति समाप्त हो जाएगी, उस दिन से वह नहीं आएगा। इसी प्रकार अन्य कुछ दिखावटी भक्त भी स्वर्ण के कणों की लालसा में उसके द्वार आते हैं। अतः उसे कुछ परिवर्तन लीला करनी चाहिए। उसने परमपिता परमात्मा का ध्यान किया। परमात्मा ने उसे सोने का घंटा दिखाया, जिसके कारण वह सब हुआ था।

परमपिता परमात्मा की प्रेरणा से देवी ने अपने मंदिर के कपाट सीमित कर दिए। लोलुप भाव से आने वालों को कपाट बंद प्राप्त होते थे, जिनमें वह विशिष्ट भक्त भी था। द्वार पर से सोने का घंटा अदृश्य कर दिया। केवल अनासक्त भक्तों को ही वह दीखता था, किंतु उसे स्पर्श कोई नहीं कर पाता था। स्पर्श करने के प्रयास में वह अदृश्य हो जाता था। वह भक्त प्रारंभ में द्वार बंद देख सारे समाज को यही जताने लगा कि यह सब क्षणिक है। मैं जब चाहूँ , उस देवी को प्रभावित कर सकता हूँ ; जहाँ चाहे, उससे भेंट कर सकता हूँ। देवी ने अपनी समस्त यात्राओं के मार्ग परिवर्तित करा दिए , जिनका उसे भान भी न हुआ। वह उसी भ्रम में रहा, कि देवी उसके अनुष्ठान से त्वरित प्रभावित हो जाएगी।

किंतु धीरे-धीरे उसका भ्रम टूटने लगा। देवी ने उसके संपर्क के सभी सूत्रों को प्रतिबंधित कर दिया। देवी तो अब भी साधारण ही थी ,और अपने साधारण अस्तित्व को स्वीकार भी करती थी, परंतु उसके लोलुप भक्तों को उसका आशीर्वाद प्राप्त नहीं होता था। अपने को अत्यंत विशिष्ट समझने वाला वह भक्त ; नहीं ; व्यक्ति भी छटपटा रहा था। उसका तिरस्कार हो रहा था ; किंतु देवी उससे दूर जा चुकी थी। अब कभी उसकी भक्ति को नहीं स्वीकार करेगी। देवी समझ चुकी थी , कि सोने का घंटा भ्रम ही बना रहे, तो उचित है ! उसे सत्य नहीं होना चाहिए !

इस छवि को हमने पिक्सा बे साइट से साभार उद्धृत किया है।

…..श्री…..

Subscribe
Notify of
guest

Time limit is exhausted. Please reload CAPTCHA.

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x