चंचला अरमानों से भरी नारी थी। अपने परिवार की धुरी। प्रत्येक कार्य सौंदर्य से पूर्ण ; घर हो या बाहर। कामकाजी स्त्री थी। दौड़ते-भागते सब सम्हालती रहती थी। घर और कार्यालय दोनों जगह अपनी ओर से पूरी तरह कुशलता से कार्य करती। उसके द्वारा पूर्णित कार्य के परिणाम दिखाई भी देते। उसकी स्वाभाविक विशेषताएँ थी :- निश्छलता, नेकी, सरलता, अदूरदर्शिता, त्वरित क्रोध। इन सभी विशेषताओं के दुष्परिणाम उसे कार्यस्थल पर खूब भोगने पड़ते थे। अधिकतर ही रो पड़ती थी ; झुँझलाई हुई घर आती थी। घर में जो सदस्य अनुकूल प्रतीत होता, उससे कार्यस्थल की पीड़ा बताती। सब अपने-अपने ढंग से समझाते; उसे सांत्वना प्राप्त होती; एक बार पुनः नए छोर से काम में जुट जाती।
यह तो थी कार्यालय की बात ; घर में स्वच्छता के प्रति उसकी लगन निराली थी, जिसका उपहास भी खूब उड़ता। एक कामवाली रखी हुई थी, जिसे वह घरेलू सहायिका कहा करती थी। उससे खूब सफ़ाई से काम लेती थी। जब कभी वह नहीं आती थी तथा जब कभी कार्यालय में अवकाश रहता था तो स्वयं बर्तन माँजती थी; छुटपुट सफ़ाई तथा अन्य कार्य करती रहती थी। पति घर के कामों में बराबर हाथ बँटाते थे परंतु उनकी मितव्ययिता तथा अस्वच्छता के कारण दोनों में अक्सर कहासुनी हो जाती थी। बाद में चंचला को मना भी लिया जाता था। कुल मिलाकर जीवन की गाड़ी सफलतापूर्वक चल रही थी।
चंचला को अपने उत्तरदायित्वों का सदा ध्यान रहता था। घर की आवश्यकताओं को ठीक से पूरा कर सके ; बच्चों की आवश्यकताओं व इच्छाओं को यथाशक्ति पूर्ण कर सके ; उनकी शिक्षा में किसी प्रकार की बाधा न आए तथा सेवानिवृत्ति पश्चात् उसे आर्थिक रूप से पति या बच्चों पर निर्भर न रहना पड़े ; आदि विभिन्न दिशाओं में वह निरंतर प्रयासरत रहती। उसकी एक बेटी थी, जिसका वर्तमान व भविष्य दोनों सुरक्षित करने का वह संपूर्ण प्रयत्न कर रही थी। पति न केवल अति मितव्ययी थे अपितु बेटियों के प्रति उनकी संकुचित विचारधारा भी थी। अतः चंचला को अपनी बेटी की सदा चिंता सताती थी। बेटी सयानी हो चुकी थी, तथा उसकी उच्च शिक्षा भी उत्तम कोटि की हुई थी। अब वह सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी में जुटी थी। चंचला भी प्रतीक्षा ही कर रही थी, कि बेटी की उच्च श्रेणी प्रशासकीय सेवा में नियुक्ति हो जाए, तो वह एक अच्छे घर-परिवार का सुयोग्य वर खोज उसका विवाह रचाए तथा अपने सबसे बड़े उत्तरदायित्व को पूर्ण कर संतुष्ट हो सके। समय बीत रहा था….
समय बीतता गया। कहते हैं न – सब दिन होत न एक समाना। बस वही हुआ। किसी पराए देश से फेंका हुआ अदृश्य पाँसा ‘कोरोना’ विषाणु के रूप में हमारे देश में आ पहुँचा। देखते ही देखते देश के एक कोने से दूसरे कोने में और फिर हमारे शहर, देश की राजधानी, दिल्ली में भी इसकी दस्तक सुनाई दे गई। यह संक्रमण फैलाने वाला विषाणु था, जो चमगादड़ों की देह से जाने कैसे मानव की देह में प्रवेश कर गया। यह संक्रमण श्वास एवं मुख से खाँसी, बातचीत आदि के समय निकलने वाले दूषित कणों के किसी व्यक्ति के शरीर में जाने से फैल रहा था। उस पर विडंबना यह हो गई कि इसके प्रभाव चौदह दिन बाद परिलक्षित हो रहे थे। हालांकि यह कहा गया कि संक्रमण का पता लगने के बाद चौदह दिन सबसे दूर एकांत में रहने से इसे समाप्त किया जा सकता है। फिर भी उपचार-विहीन यह संक्रमण, अनभिज्ञता तथा देशवासियों के मनमाने व्यवहार के कारण तेज़ी से अपने पाँव पसारने लगा। एक के बाद एक लोग इसका ग्रास बनने लगे। जो पहले से पूर्णतः स्वस्थ थे, वे तो ठीक हो भी रहे थे, परंतु जिन्हें अन्य रोग थे – रक्तचाप, मधुमेह, गुर्दे आदि के रोग, उनका प्राणांत हो रहा था।
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा इसे विश्व महामारी घोषित कर दिया गया क्योंकि भारत ही नहीं, सभी देश इसके चंगुल में फँस चुके थे। कहा गया कि यदि इससे बचना है, तो नाक और मुँह को आवरण अर्थात् मास्क से ढको। एक-दूसरे से दो गज़ की दूरी पर खड़े होओ। अपने हाथों को बार-बार साबुन से धोते रहो। ऐसे प्रचारों का ताँता लग गया। इतना ही नहीं, जब प्रचार पर्याप्त नहीं लगे, तो पूरे देश में तालाबंदी करनी पड़ी। सभी देशवासी अपने घरों में बंद हो गए। संक्रमण के मामले प्रतिदिन बढ़ने लगे। तालाबंदी के द्वारा कड़ी को तोड़ने का प्रयास तो बहुत अच्छा था, परंतु लोगों की मनमानी भी कम नहीं थी। घर से बाहर आने के लिए विशेषाज्ञा प्राप्त करनी अनिवार्य थी। उत्सुकतावश लोग घर से बाहर निकलना चाहने लगे तथा येन-केन-प्रकारेण विशेषाज्ञा प्राप्त करने लगे। कुछ व्यक्तियों को सचमुच अपरिहार्य आवश्यकताएँ भी आ पड़ीं। न चिकित्सक घर बैठे रह सकते थे, न परिचारिकाएँ। अस्पतालों के अन्य सहायक कर्मचारियों को भी जाना ही था। पुलिस सेवक भी कर्त्तव्य पथ पर तैनात थे। आवश्यक सेवाओं की आपूर्ति जारी रखी गई। अतः ऐसे दुकानदारों ने भी दुकानें खोलीं। फल-सब्जी के ठेले लगते रहे। दवा की दुकानें यथाप्रकार खुलती रहीं। शेष सब कार्य घर से। बिजली-पानी के बिल भरने से लेकर बैंकों से लेन-देन तक सब इंटरनेट के द्वारा “आॕनलाइन” । बच्चों के विद्यालय भी “आॕनलाइन” हो गए। दौड़ती-भागती ; चलती-फिरती ज़िंदगी जैसे थम-सी गई।
एक मास, दो मास…. ; मास-प्रति-मास व्यतीत होने लगे ; इस आशा में कि, अब सब ठीक हो जाएगा ; पर नहीं ; जन-साधारण का संक्रमित होना नहीं रुका, पर हाँ! इस बीच कोरोना संक्रमण को रोकने की दवा बनाने की प्रक्रिया अवश्य प्रारंभ हो गई। डाॅक्टरों तथा वैज्ञानिकों ने जी-जान लगा दी। धीरे-धीरे मामले भी कुछ कम होने लगे, तो सबके मन को ढाँढ़स बँधने लगा, कि अब संभवतः सब कुशल हो जाए। चंचला तथा उसका परिवार सभी बचावों का पूरा ध्यान रखता था। अच्छी तरह मास्क लगा कर बाहर जाते। सभी वस्तुओं को कीटाणु नाशक छिड़काव से साफ़ करते। हाथों को धोते रहते या सैनेटाइज़र लगाते। वे सब बचे हुए थे तथा भगवान को धन्यवाद देते रहते थे। सब कुशलतापूर्वक चल रहा था। आठ-नौ माह बाद समाचार जगत में संभावनाएँ व्यक्त की जाने लगीं, कि कोरोना विषाणु की रोकथाम के लिए वैक्सीन आने वाली है। धीरे-धीरे संक्रमण का विस्तार भी सिमटता दिखाई देने लगा। जिस प्रकार कृष्ण जन्म से वर्षों पूर्व ही उनके अवतार लेने की भविष्यवाणी ने जनमानस को सुखी व हर्षित कर दिया था, उसी प्रकार वैक्सीन आने की संभावना मात्र से लोगों को मानो आरोग्य संजीवनी मिल गई। मुख-आवरण (मास्क) के प्रति लोग लापरवाह हो गए। दो गज़ की दूरी, दो हथेली भर की रह गई। उसी समय कार्यालयों में कामकाज तथा स्कूल-काॅलेजों में शिक्षा की ऐसी अनिवार्यता दर्शाई गई, कि सब को यथासंभव खोल भी दिया गया।
और रही सही कसर हमारे धार्मिक अनुष्ठानों से पूरी हो गई। कुल मिलाकर देश को पटरी पर चलाने के प्रयास पुरजोर हो चले। चंचला भी अपने कार्यालय नियमित रूप से जाने लगी। साथ ही आस्था के नाम पर चल रहे महापर्व “महाकुंभ” की झलक भी समाचारों में देखती। उसे आश्चर्य होता, कि कोरोना संक्रमण निरंतर फैल रहा है; उसके बाद भी आस्थावान मनुष्य निर्द्वंद्व होकर गंगा जी में डुबकी लगा रहे हैं। गंगा माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने की चाह में ये अपने साथ न जाने कितने निर्दोषों को कोरोना का शाप दे जाएँगे। हुआ भी कुछ ऐसा ही। प्रशासन की ढिठाई और ढिलाई दोनों के कारण बात हाथ से निकलने लगी। स्कूलों व काॅलेजों में विद्यार्थी संक्रमित होने लगे। विवशता वश एक-एक कर सबको बंद करना पड़ा। कार्यालयों में कर्मचारियों को संक्रमण होने लगे। उन्हें भी बंद करना पड़ा या फिर संख्या घटानी पड़ी। पुनश्च कार्यालय के कार्य घर से किए जाने लगे। परंतु इस बीच संक्रमण इतना बढ़ गया कि घर-घर में जा पहुँचा। महाकुंभ तो बंद करवा दिया गया, परंतु इस बार मानव संतानों के स्वार्थ के कारण गंगा माँ ने शापित किया। गाँव-गाँव में संक्रमण फैल गया।
इस बीच वैक्सीन आ चुकी थी। प्रथम चरण में साठोत्तर वृद्धों को वैक्सीन दी जाने लगी। चंचला की माँ ने समझदारी से वैक्सीन लगवाई। संक्रमण इतनी तीव्रता से बढ़ रहा था, कि होली बीतते ही अगले माह से पैंतालीस तथा उत्तरोत्तरों के लिए भी वैक्सीन के द्वार खोल दिए गए। चंचला व उसके पति ने भी बच्चों के समझाने पर प्रथम चरण में ही वैक्सीन लगवा ली। वैक्सीन लगाते समय सुई लगाने वाली परिचारिका ने समझाया, कि यह एकदम सुरक्षित वैक्सीन है; इसके कोई दुष्प्रभाव नहीं हैं; लगाने के बारह घंटे बाद ज्वर चढ़ सकता है, जो १०२° तक जा सकता है। २४ से ४८ घंटे में ज्वर उतर जाएगा। फिर सब सामान्य हो जाएगा। साथ ही दो गोली देते हुए कहा, कि ज्वर तीव्र हो जाए तो कुछ खाकर पानी के साथ ले लेना। चंचला ख़ुश-ख़ुश घर आ गई तथा कार्यालय व घर के कार्यों में मन लगा लिया। कुछ घंटे बीतने के पश्चात् बाँईं बाँह में टीके के स्थान पर तीव्र पीड़ा होने लगी तथा बाँह उठाना कठिन हो गया। तब चंचला की बेटी ने उससे काम छुड़ा लिया। रात होने पर चंचला को तीव्र ज्वर ने आ घेरा। उसने दवा ली तथा सो गई क्योंकि शरीर शिथिल हो रहा था।
अगले दो दिनों में परिचारिका के बताए अनुसार ज्वर उतर गया। सब सामान्य होने लगा था। बाँह की पीड़ा से संपूर्ण मुक्ति मिलते-मिलते एक सप्ताह लग गया। गाड़ी दौड़ने तो नहीं, किंतु हाँ, पटरी पर चलने अवश्य लगी थी। इधर संक्रमण के मामले प्रतिदिन बढ़ते जा रहे थे। देखते-देखते चंचला के पति के कार्यालय में भी कार्य दिवस सोम, बुध, शुक्र व मंगल, वीर, शनि- इस प्रकार तय कर दिए गए। एक दिन जाना व एक दिन घर से काम करना। परंतु भाग्य को संभवतः कुछ और ही स्वीकार था। एक सप्ताह भी नहीं बीता था, कि एक दिन प्रातः काल ही पति ने उसे रोककर कहा,”रातभर से मुझे तीव्र ज्वर है। पूरी रात सोया नहीं ; उल्टी भी हुई और थकान भी खूब लग रही है।” चंचला स्तब्ध रह गई। विवाह के पश्चात् संभवतः आज दूसरी बार ही उन्होंने ज्वर चढ़ने का विस्तार से वर्णन किया था। शेष तो सदा ही वे अपने स्वास्थ्य का स्वयं ध्यान रखते थे। चंचला को कभी नहीं बताते थे। वे घर में रहकर विश्राम भी नहीं करते थे, किंतु इस बार स्थिति दूसरी थी। चंचला ने तुरंत उनसे कुछ खाकर दवा लेने को कहा। उन्होंने तुरंत दवाई ली। एक दिन बीता। ज्वर कम नहीं हुआ। इधर चंचला को भी दो दिन से अधिक थकावट अनुभव हो रही थी। उसे अपने प्रति भी संदेह होने लगा। कोरोना विषाणु शरीर में प्रवेश करने के बाद जब रूप बदलना व अपनी संख्या बढ़ाना आरंभ करता है, तो उसके शारीरिक लक्षण चौदह दिन बाद परिलक्षित होते हैं तथा प्रारंभिक लक्षण हैं- अधिक थकावट, कँपकँपी के साथ तीव्र ज्वर, कंठ अवरोध आदि। पति-पत्नी दोनों में लगभग यही लक्षण प्रकट हुए। एक और दिन बीतते रात को चंचला को पुनः कँपकँपी के साथ तीव्र ज्वर चढ़ गया। चंचला घबरा गई। सोचने लगी, “ये सब तो कोरोना के लक्षण हैं। कहीं हम दोनों को कोरोना तो नहीं हो गया ? हे भगवान! जब तक वैक्सीन नहीं लगवाई थी; तब तक हम ठीक थे। वैक्सीन लगाते ही कोरोना हो गया। इस रोग से मुक्ति पाने के लिए चौदह दिन तक एकांतवास करते हुए एकाकी व अस्पृश्यता का जीवन व्यतीत करना!” परंतु उसने मन की बात को मन में ही दबा लिया। संभवतः उन्हें कोरोना न भी हो। पति-पत्नी चुपचाप बुखार-खाँसी आदि की दवाएँ खाने लगे। पतिदेव का ज्वर कम होने का नाम नहीं ले रहा था। चंचला को सन्निपात ज्वर का भय हुआ। उसी में आवधिक ज्वर चढ़ता है। वे चिड़चिड़े भी हो रहे थे। दो दिन और बीते तो, बच्चों को भी थकावट व खरखरे गले की शिकायत हो आई। अब सब घबरा गए तथा विचार किया गया, कि जाँच करा ही ली जाए। चंचला ने राय दी, कि नवरात्रि के उपवास चल रहे हैं; कल पूर्णाहुति कर हम जाँच करा आते हैं। बच्चे नहीं माने। दोनों ने कहा, “आपका व्रत हम पूरा करा देंगे; पहले आप चल कर जाँच कराइए।” बच्चों के तर्क के आगे चंचला विवश हो गई। पति ने जानकारी के कुछ चिकित्सकों से मोबाइल पर बात की तथा निकट के एक अस्पताल में पूरा परिवार कोरोना जाँच कराने पहुँचा।
जाँच हो गई। हाँ! सबकी जाँच हो गई। जाँच करवाकर सब घर वापस आ गए। सबने नहा लिया। चंचला को पति के संक्रमित होने का भय था; परंतु उसके पाँवों तले से धरती खिसक गई, जब पति व बच्चों ने उसे बिठाकर बताया कि सबमें केवल ‘वह’ संक्रमित है, तथा उसका संक्रमण इतना अधिक है, कि उसे उसी क्षण सब कुछ त्याग कर सबसे ऊपर के तल पर एकांतवास में जाना पड़ेगा। न वह किसी वस्तु को छुएगी; न उसे और उसके सामान को कोई छुएगा। चंचला ने बच्चों को बहुत समझाया कि वह चुपचाप काम करती रहेगी और किसी को नहीं छुएगी। बच्चे नहीं माने। कहने लगे, “आपके हाथ का छुआ खाएगा कौन ?” चंचला को जैसे धक्का लगा। एक ही क्षण में वह ‘त्याज्य’ हो गई! उसने कोई प्रतिवाद नहीं किया। लगभग एक घंटे में कुछ कपड़े, साबुन, बर्तन धोने का सामान, पेस्ट, ब्रश आदि बड़े बैग में डाले और ऊपर तीसरी मंजिल की ओर चल दी। भारी सामान के साथ धीरे-धीरे तीसरी मंजिल पर पहुँच गई। कुछ सामान पति ने पहुँचा दिया। कमरे में सामान रख चंचला ने धरती पर बिछौना बिछा लिया और चुपचाप बैठ गई। एकाएक लगे इस धक्के से वह एकदम मौन हो गई थी।
चंचला ने नवरात्रि के उपवास रखे थे। वह अष्टमी का दिन था। संध्या हो गई थी। विधान से पूजा न कर पाने से वह आहत थी। रात्रि को फलाहार लेकर पति आए, तो उसकी रुलाई फूट गई। उसे अपना जीवन एकाएक एकाकी प्रतीत होने लगा। अगला सवेरा एकाकी जीवन का संदेश तथा जीवन की सच्चाई को सामने लेकर आया। चंचला फूट-फूटकर रो पड़ी। उसे लगा कि अब वह संभवतः कभी सामान्य जीवन में नहीं लौट पाएगी। एक संक्रमण ने उसे अपनों से ‘अस्पृश्य’ कर दिया था। उसके अपनों ने, जिनके वर्तमान व भविष्य की सुघड़ता को वह दिवस-रात्रि गढ़ती थी, उसे अछूता बना ठुकरा दिया था। दिन-दिन कर वह अपने एकाकी जीवन को अपनाने लगी। उसकी हँसी मुरझा गई। अपने जीवन का वर्तमान उसे मृत्यु के सत्य समान प्रतीत होने लगा। जब यमराज आएँगे, तब भी तो वे सोचने का क्षण तक न देंगे। ऐसे ही तो आई है वह ऊपर; एक झटके में; सोचने-समझने का क्षण तक न मिला।
अपने एकाकी दिनों में वह समय काटने लगी। कार्यालय का कुछ सामान व मोबाइल फ़ोन को चार्जर समेत ऊपर ले आई थी, तो आवश्यक कर्त्तव्य भी पूर्ण करने लगी। सात दिन बाद उसे एकाकी वास में तृप्ति मिलने लगी। न कोई शिकायत, न प्रतिवाद! मानों उसने निज जीवन को जीवित तर्पण कर यमराज को सौंप दिया हो। उस एकाकी जीवन में ही उसे तृप्ति का आभास होने लगा था। इधर, नियति को संभवतः कुछ अन्य भी आपेक्षित था। उसकी बेटी को गर्म दवाइयों; गर्म पानी तथा तीव्र हो रही गरमी के कारण पूरी देह पर गरमी के चख्ते हो आए। रसोई घर में उसका काम करना कठिन हो गया। अतः ग्यारह दिन बीतने के बाद, बारहवें दिन उसने आखिर सब छुआ-छूत का विचार छोड़ माँ को नीचे बुला लिया तथा आरती व तिलक से भूतल प्रवेश करा रसोईघर का कार्यभार पुनः सौंप दिया। एकांतवास पूर्व में ही बढ़ कर सत्रह दिन हो चुका था। शीघ्र ही वे सत्रह दिन भी पूरे हो गए।
एकांतवास पूर्ण हो गया। पुत्री ने पंजीरी व सत्यनारायण कथा की मनौती मानी थी। चंचला ने भी देवी माता के भोग की मनौती मानी थी। एक-एक दिवस कर दोनों मनौतियाँ पूरी की गईं। आज जीवन सामान्य हो रहा है, परंतु न चंचला की हँसी लौटी है, न उसके पुराने वाद-प्रतिवाद! न अब उसे परिवार में किसी से शिकायत हो रही है, न कोई इच्छा जन्म ले रही है। कदाचित उसे जीवन का सर्वोच्च सत्य समझ आ गया है। इसलिए अब उसे अपनी एकाकी तृप्ति ही भली लगती है। उसे अपनी एकाकी तृप्ति में ही संतोष प्राप्त होता है। भविष्य का विचार उसने त्याग दिया है…..
….. श्री ….