बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर बौद्ध धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्ध; भगवान गौतम बुद्ध को नमन अर्पित करते हुए हम यह विशेषांक लेकर आए हैं। महात्मा बुद्ध के ज्ञान, उनकी शिक्षाओं, उनके जीवन आदि से तो लगभग सभी परिचित हैं। हम यहाँ उनके बचपन की एक घटना का उल्लेख कर रहे हैं। यह वर्णन वास्तव में राष्ट्र कवि श्री मैथिली शरण गुप्त जी की कविता ‘माँ कह एक कहानी’ के भावार्थ रूप में प्रस्तुत है। इसे हमने प्रेरक प्रसंग का पुट देने का प्रयास किया है।
गौतम बुद्ध ‘भगवान् बुद्ध’ अथवा ‘महात्मा बुद्ध’ होने से बहुत पहले, जब आठ या दस वर्ष के बालक रहे होंगें, यह तब की बात है। एक समय प्रातः काल वे एक उपवन में भ्रमण कर रहे थे, जहाँ का वातावरण सुगंधित तथा मनोहर था। उसी समय उनके पाँवों के पास एक हंस आकाश से धरती पर आ गिरा। बालक सिद्धार्थ चौंक कर पीछे हट गए। उन्होंने ध्यानपूर्वक देखा तो पाया कि उस हंस के दाहिने पंख में एक तीर धँसा हुआ था। बालक सिद्धार्थ बालपन से ही बड़े दयालु तथा सहृदय थे। उन्होंने तुरंत उस हंस को अपनी गोद में उठाया ; उसके पंख में से तीर को सावधानी से खींच कर निकाला ; उसके घाव को शीतल जल से धोकर साफ किया।
हंस को थोड़ी राहत मिली। उसने आँखें खोल दीं। उतनी देर में वहाँ देवदत्त आ पहुंचे। वे सिद्धार्थ के बड़े भाई थे ; स्वभाव से क्रोधी तथा आखेट के परम लोलुप। आते ही उन्होंने क्रोध में भर कर सिद्धार्थ को आदेश दिया, “यह हंस हमारा आखेट है। इस पर हमारा अधिकार है। इसे तुरंत हमें सौंप दो।” बड़े भ्राता का आदेश टालना परंपरा के विरुद्ध था ; फिर भी साहस कर सिद्धार्थ ने उनसे कहा, “यह आपका आखेट तब था, जब आपने इसे घायल किया था। परंतु इसके प्राणों की रक्षा करने के बाद अब यह हमारा है। हम इसका उपचार करेंगे। स्वस्थ होने के बाद यह स्वतंत्र होगा।” परंतु देवदत्त नहीं माने। वे केवल क्रोधी ही नहीं, हठी भी थे। वे अपने आखेट को छोड़ने के लिए किसी भी दशा में प्रस्तुत न थे। दोनों भ्राताओं के मध्य विवाद बढ़ता गया। अंत में बड़े भाई ने न्यायालय से न्याय माँगने का निश्चय कर लिया।
पिता को जब पुत्रों के मध्य इस विवाद का ज्ञान हुआ, तो पक्षपात का आरोप लगने के भय से उन्होंने महामंत्री को न्याय सिंहासन पर बिठा दिया। महामंत्री ने दोनों पक्षों की बात विस्तार से सुनी। अंत में उन्होंने निर्णय दिया कि इस पक्षी को राजभवन में ही एक खुले स्थान पर छोड़ दिया जाय तथा इसके घाव के भरने की प्रतीक्षा की जाय। उसके बाद इस विवाद का निर्णय करना उचित होगा।
हंस को राजभवन में एक उपयुक्त खुले स्थान पर छोड़ दिया गया। देवदत्त प्रतिदिन आते; उसे एक दृष्टि भर देखते और चले जाते। धीरे-धीरे देवदत्त ने आना छोड़ दिया। दूसरी ओर सिद्धार्थ प्रतिदिन आते; उसके घाव को धोकर मरहम लगाते; उसे दाना और पानी देते। एक माह बीत गया तथा हंस भी पूर्णतः स्वस्थ हो गया। वह उड़-उड़ कर सिद्धार्थ के पास आने लगा। निश्चित दिवस पुनः न्याय सभा बैठी। हंस को सभा में लाया गया। सिद्धार्थ व देवदत्त को भी बुलवाया गया। सब ने देखा ; हंस ने देवदत्त को पहचाना भी नहीं तथा सिद्धार्थ को देखते ही उनकी गोद में चढ़ गया। न्याय सबकी समझ में आ चुका था। फिर भी औपचारिकता के नाते महामंत्री ने कहा, ” मारने वाले से अधिक बचाने वाला सबको प्रिय होता है। अतः बचाने वाले का अधिकार भी पहले है। सिद्धार्थ ने इस हंस की प्राण रक्षा की; इसका पालन किया; अतः इस पक्षी पर केवल सिद्धार्थ का अधिकार है। यह पक्षी उन्हें ही दिया जाता है।”
महाराज शुद्धोधन न्याय से प्रसन्न और संतुष्ट हुए।
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(स्वीकारोक्ति : इस अंक के लिए महात्मा बुद्ध की छवि को हमने गूगल से साभार उद्धरित किया है।)