ज्ञानकट्टा

*घुमंतू* ( हास्य-व्यंग्य कविता )

*घुमंतू* ( हास्य-व्यंग्य कविता )

हिंदी साहित्य के अग्रणी कवि आदरणीय ‘श्री अरुण कमल‌ जी’ द्वारा रचित कविता ‘न‌ए इलाके में’ पढ़ने के बाद अनेक विचार मन में उत्पन्न हुए। यह कविता कक्षा नवीं हिंदी ‘बी’ की पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श 1’ में पाठ्यक्रम में सम्मिलित है। सोचा, “जब उन्होंने इस कविता को लिखा होगा, संभवतः नव निर्माण प्रगति पर होंगे; तीव्र गति से न‌ए परिवर्तन हो रहे होंगे।” आज का दौर उससे और आगे बढ़ चुका है। तो क्यों न कुछ और नया रचा जाए। अतः श्री अरुण कमल‌ जी तथा उनकी कविता को सादर नमन करते हुए हमने कुछ हास्य-व्यंग्य भरा लिखने की धृष्टता की है। प्रस्तुत है यह कविता :

घुमंतू

न‌ए इलाकों में……

जब मैं कहीं जाता हूँ…….

सारे पुराने निशान, दिखाई नहीं देते।

क्योंकि ???

पुराने निशान हैं ही नहीं !!

और…. न‌ए निशान बने ही नहीं ।।

क्यों ?

अरे ! घुमंतू जो आ गया!!!

घुमंतू ने सारे न‌ए-पुराने निशान ही मिटा दिए।

कहीं जाना ही नहीं पड़ता।

कहीं से आना ही नहीं पड़ता।

घुमंतू ही घुमा देता है सारी दुनिया।

घुमंतू दिखलाता है, प्यारी-प्यारी झाँकियाँ।

‘घुमंतू’! अरे अपना मोबाइल!

बड़ा पक्का और भरोसेमंद दोस्त है भाई।

भाई और बंधु तेरे काम नहीं आएँगे,

पर इस घुमंतू से सारे, काम बन जाएँगे।

भाई से तू तोड़ ले नाता,

बंधु से न रख कोई वास्ता,

घुमंतू ही तेरा असली भाई-बंधु बन जाएगा।

पिताजी तो गुज़रे ज़माने के ‘मोर’ हुए।

अब तो मोबाइल बाबा ही बस चित्तचोर हुए।

पत्नी की बाँकी चितवन अब कहाँ भाती है !

घुमंतू पर बतियाने की आदत जब लग जाती है।

बच्चों की नटखट शरारतों से दुखने लगता है सिर।

अजी! रिंग टोन और हलो ट्यून से ही बहलता है दिल।

अब कहाँ मामी, मौसी और चाची के घर जाना होता है!

अब कहाँ पतझड़ को ग‌ए, और भादो को आना होता है!

अब तो पतझड़, वसंत औ’ सावन, यों ही बीते जाते हैं।

हम तो भ‌इया, बस, घुमंतू से ही भीगे जाते हैं।

बिजली-पानी-इंटरनेट को भी घुमंतू ने मोल लिया है।

राशन, साबुन, कपड़े, जूते भी घुमंतू ने घोल लिए हैं।

अब पंक्ति में कौन खड़ा हो ;

जब दूध, फल, सब्ज़ी सब घर आ जाए।

छोड़ो ‘जिम’ की मेहनत भ‌इया,

अब तो घुमंतू कदम गिनाए।

एक उँगली से काम बने अब,

दस उँगलियाँ बेकार लगें।

जय मोबाइल तेरी माया,

सोना-चाँदी सब भार लगे।

मौसम का ये हाल बताए,

बारिश, गरमी, धूप दिखाए,

आरती कराए, हवन कराए,

पंडित की दक्षिणा भिजवाए।

गए ज़माने, जब प्रकृति की,

पूजा था मानव करता,

अब तो गाओ,

जय घुमंतू ; जय-जय मोबाइल,

तुम्हीं हो पूजा, तुम्हीं हो मंदिर,

और तुम्हीं करता – भरता।

पता-ठिकाना हर इलाके का मोबाइल से पा लेता हूँ।

न‌ए इलाकों में….

अब मैं घुमंतू के सहारे जा लेता हूँ।

….. श्री …..

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