न कोई रिश्ता है, तुमसे,
न कोई पहचान ही ख़ास बनी।
बस एक आवाज़ तुम्हारी है……,
दिल और जान में बसी।
उसी आवाज़ ने हमको, आशाएँ दे डालीं हैं।
प्रगति की किरण दिखाई है,
उन्नति मार्ग बनाया है।
न बाँधो अब हमें तुम फिर…..,
निज मुखड़े के बंधन में……,
कि मुखड़े सज-सँवर जाते हैं,
हल्दी और चंदन से।
मैं तुम्हें बता दूँ अब, मुझे क्यों याद आते हो ?
वही आवाज़ दे दो फिर, कि जिसमें बाँध जाते हो।
उसी आवाज़ के कारण, हमें तुम याद आते हो।
( यह कविता एक ऐसे प्रेरक स्रोत ‘महामना’ को समर्पित करते हुए लिखी गई है, जिन्होंने प्रतिभा तथा योग्यता को अपना मानदंड बनाया है; जो ‘दैहिक प्रतिभा’ से अधिक ‘कार्य प्रतिभा’ को प्राथमिकता देते हैं। )
….श्री….