“श्री!” स्वागतम् संदेश!
नमस्कार! आभार!
“श्री” संदेश का प्रथम प्रयास आपकी सेवा में प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है। आशा है, हमारा प्रयास सफल होगा और हमारी यात्रा अनवरत सुखद चलेगी।
“हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के! इस देश को रखना मेरे बच्चो सम्हाल के!!” हिंदी फ़िल्म ‘जागृति’ की ये पंक्तियाँ हमें अनगिनत संदेश दे जातीं हैं। आपके नाम प्रथम संदेश में हम आपको भाषा के ’भँवर’ में डोलती ‘हिंदी’ को सम्हाले रखने का आह्वान देते हैं।
व्याकरण की लगभग सभी पुस्तकों के पहले ही पाठ का शीर्षक होता है– “भाषा, बोली, लिपि…..” आदि-आदि। इस पाठ की प्रारंभिक पंक्तियों में लिखा होता है, ” भाषा संपर्क का माध्यम है। भाषा लिखने, पढ़ने, बोलने व सुनने का साधन है।” प्रत्येक पुस्तक की अपनी शैली; अपने शब्द; अपने वाक्य होते हैं। ‘भाषा’ शब्द जिस ‘भाष्’ धातु से बना है– उसका अर्थ ही है– बोलना। अध्यापिकाएँ इस पाठ को पढ़ाती हैं; विद्यार्थी पढ़ जाते हैं। परीक्षा होती है; चयनित प्रश्नों के उत्तर देते हैं; उत्तीर्ण होते हैं; अगले पाठों पर तथा फिर अगली कक्षा में चले जाते हैं। दसवीं-बारहवीं — जब तक ‘हिंदी’ विषय पढ़ते हैं, इस पाठ को दोहराते रहते हैं। हमारे देश में तो पाठ्यक्रमों के आधार पर हिंदी के ‘क’ व ‘ख’ ( ए ; बी ) दो स्तर भी हैं। अधिकांश विद्यालयों में तो ‘ख’ ( बी ) पाठ्यक्रम ही फल-फूल रहा है। ऐसे में इस ‘प्रारंभिक’ पाठ को पाठ्यक्रम से निकाल ही दिया जाता है, जिससे वहाँ के विद्यार्थी फिर इसे देखते तक नहीं।
कुछ वर्ष पूर्व तक ऐसा प्रतीत होता था कि यह स्थिति केवल हिंदी की है। धीरे-धीरे अनुभव होने लगा कि सभी भारतीय भाषाओं तथा बोलियों की यही दशा होती जा रही है। आज इक्कीसवीं शताब्दी का तीसरा दशक आरंभ हो चुका है। आज की दशा को अनुभव करते हुए अंतरराष्ट्रीय भाषा बन चुकी ‘अंग्रेज़ी’ भी इसी दयनीय स्थिति में पहुँच चुकी है।
भाषा वास्तव में अपने विचारों को व्यक्त करने का सशक्त माध्यम है। अभिव्यक्ति की विशेषता ने ही मनुष्य को ‘व्यक्ति’ बनाया है। अभिव्यक्ति की सफलता तभी मानी जाएगी, जब एक व्यक्ति अर्थात् वक्ता एक भाषा को बोलते हुए यथासंभव अन्य भाषाओं को ‘बैसाखी’ न बनाए। कभी सबको समझ आने के लिए; तो कभी अपना भाषा ज्ञान बघारने के लिए; कभी लज्जित न होने के लिए और कभी तथाकथित सामाजिक स्तर के बराबर आने के लिए– हम सभी भाषा की ‘बैसाखी’ से बोलते हैं। धीरे-धीरे यह हमारी आदत बन चुकी है।
शिक्षण व्यवस्था में बच्चों को भाषा पढ़ाई ही इसलिए जाती है, कि उनका लेखन तथा वाचन कौशल विकसित हो; अवसर एवं आवश्यकता के अनुरूप उचित वाक्य बोले जा सकें; मुहावरों-लोकोक्तियों; लक्षणा-व्यंजना आदि के प्रभावशाली वार्तालाप हो सकें। तर्क-वितर्क सुनकर भी आनंद आए। आधुनिक युवा वर्ग, किशोर व बाल विद्यार्थी वर्ग तथा भावी उत्पादक जन समुदाय, अभिव्यक्ति क्षीणता का शिकार होता जा रहा है; जिसके परिणामस्वरूप वह संवेदना-शून्य भी होता जा रहा है। किसी भी भाषा-भाषी के लिए यह शुभ लक्षण नहीं हैं। हम सबको इस विषय में सोचने की आवश्यकता है। ज़रा सोचिए…..
….. चारु ‘श्री’….